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Indra dev puja: इंद्र देव को मनाने का अनोखा तरीका, 10 हजार लोगो ने गांव के बाहर बनाया खाना

• LAST UPDATED : September 6, 2023

India News (इंडिया न्यूज़), Purushottam Parwani/Indra dev puja: बारिश न होने से पूरे एमपी में किसान चिंतित है। बारिश जल्द न हुई, तो फसल खराब होने की कगार पर है। बारिश के देवता भगवान इंद्र को मनाने के लिए तरह-तरह की परंपरा निभाकर टोटके (उपाय) किए जा रहे हैं। शुजालपुर से 16 किमी दूर ग्राम अरनियाकला मे 4 सितंबर को हर परिवार ने दुकान और घरों में ताला लगा दिया। यहां 1400 मकान ताले में बंद रहे।

कोई दुकान नहीं खुली। यहां 6300 मतदाता रहते है। सबने गांव के बाहर जाकर एक जैसा खाना दाल,बाटी और चूरमा खाया। हर घर से चंदा लिया गया, चाहे वह ₹1 हो या इससे ज्यादा। इकट्ठा हुए चंदे के पैसे से पूजा सामग्री लेकर हर मंदिर, मस्जिद, मजार में अपने अपने धर्म व नियम अनुसार पूजा सामग्री अर्पित की गई। मंदिर में नारियल चढ़ाया तो मजार पर चादर, इत्र, फूल भी इन्हीं पैसों से चढ़ाई गई। भगवान को भी दाल बाटी चूरमा का भोग लगाया गया।

  • यह लोक परंपरा सदियों से ग्रामीण इलाकों में चल रहा है
  • हर जाति धर्म के लोग इस परंपरा का पालन करते हैं

घर पर ताले लटके

सबसे पहले डोंडी (सूचना देने ढोल पीट) ऐलान किया गया कि किसी घर में चूल्हा नहीं जलेगा। सब लोग गांव के बाहर जाकर खाना बनायेंगे और खाएंगे। असर ये हुआ घर पर ताले लटके थे। गांव की कांकड़ (सरहद के बाहर) या अपने खेतों पर पहुंच गई। पूरे परिवार का एक साथ एक जैसा खाना पूरे गांव ने दोपहर को बनाया। सबने दाल, बाटी, चूरमा बनाकर भगवान को भोग लगाया। एक साथ खाना खाया। इस परंपरा को शुजालपुर के आसपास उज्जैनी / गांव बाहर भोज के नाम से भी जाना जाता है। कई इलाकों मे उझावणी, उजमनी या नागल भी कहते हैं।

शास्त्र, ग्रंथ में इस परंपरा का प्रमाणिक जिक्र नहीं, लेकिन यह लोक परंपरा सदियों से ग्रामीण इलाकों में लोग पीढ़ी दर पीढ़ी निभाते आ रहे हैं। हर जाति धर्म के लोग इस परंपरा का पालन करना अपना फर्ज समझते हैं। इसके लिए कोई तारीख या तिथि तय नहीं होती, समय और तारीख गांव के पंच, पटेल या बुजुर्ग तय करते हैं।

उल्लंघन पर दंड का नियम

हर उम्र में लगभग हर बार इस परंपरा में लोगों को स्वेच्छा से शामिल होते हुए देखा है। जो व्यक्ति मंदिर, मस्जिद के लाउड स्पीकर से होने वाले ऐलान, मुनादी की इस सूचना का पालन नहीं करता, उसे दंड देने का सामाजिक प्रावधान भी गांव में तय है। इन्होंने बताया कि बीते कई सालों से किसी को भी दंडित नहीं किया गया, क्योंकि सभी इस परंपरा को स्वेच्छा से स्वीकार कर गांव के बाहर ही भोजन बनाते और खाते हैं।

पहली मान्यता

मान्यता है कि पुराने समय में मंदिरों का निर्माण गांव के बाहर सरहद पर विशेष रूप से किया जाता था, ताकि कोई विपत्ति गांव में अंदर न आए। अधिकांश किसान अपने खेत खलियान पर भी भगवान के स्थान सांकेतिक रूप से बना कर रखते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी इनकी पूजा भी करते हैं। लेकिन इन स्थानों की नियमित पूजा नहीं हो पाती और बारिश न होने की स्थिति में सभी देवस्थानों को एक साथ पूजने शुद्ध देसी घी में सात्विक रूप से बनाए गए चूरमा (गुड, घी के साथ बाटी का चूरा) गोबर के कंडे को अग्नि से प्रज्वलित कर अग्नि में व देवस्थानो पर अर्पित किया गया।

दूसरी मान्यता

दूसरी मान्यता यह भी है कि बारिश के मौसम में खुले आसमान के नीचे कच्ची जमीन पर खाना बनाना भगवान इंद्र को चुनौती देने जैसा है। एक साथ पूरा गांव जब घर के बाहर खुले स्थान पर आग जलाकर बाटी सेकता और खाना बनाता है, तो ये एक तरह से भगवान को चुनौती दी जाती है। भगवान इंद्र इस वर्षा के मौसम में यह रोक सके, तो रोक कर बताए, ये भाव होता है। ग्रामीणों का कहना है कि अधिकांश बार परंपरा का निर्वाह होने पर बारिश भी होती है।

दाल-बाटी-चूरमा ही क्यों बनाते?

गांव के बाहर खाना बनाने की परंपरा में सभी लोग केवल दाल बाटी ही क्यों बनाते हैं, यह सवाल भी आप जरूर जानना चाहेंगे? इस बारे में प्रभा उपाध्याय ने बताया की दाल, बाटी और चूरमा का भोजन बनाना सबसे आसान होता है। क्योंकि इसके लिए केवल आटा, दाल, नमक, गुड़ घी और गोबर के कंडे की जरूरत होती है और ये सामान अमीर-गरीब, किसान- मजदूर सबके घर में रहता ही है। बर्तन भी कम लगते है।

आटा गूथने एक थाल, दाल बनाने एक तपेली सहित यदि तीन बर्तन भी हो, तो सीमित संसाधन में इस खाने को बना सकते है। बुजुर्ग जिन्होंने ये लोकरिति शुरू की वे जानते थे कि दाल बाटी के अलावा कोई और पकवान या अन्य चीज सब एक लोग साथ बना सके, यह कठिन होगा, क्योंकि उसे बनाने की विधि और सामान भी अलग तरह का होने से हर व्यक्ति उसकी व्यवस्था नही कर पायेगा

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